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शुक्रवार, 27 मार्च 2009

धरती से प्यार है तो स्विच ऑफ करिए !


इस बार शनिवार को आप शनि से बचने का एक खास उपाय कर सकते हैं। खास बात ये कि शनि के कोप को टालने की इस कोशिश में दुनियाभर के 80 देशों के करीब एक हजार देश भी शामिल होंगे। मैं शनि के जिस कोप की बात कर रहा हूं वो है ग्लोबल वॉर्मिंग यानि हमारे घर पृथ्वी का बढ़ता हुआ ताप। कार्बन डाई ऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों के असर से लगातार गरम होती जा रही पृथ्वी को क्या आप कुछ पलों की राहत नहीं देना चाहेंगे? अगर आप भी धरती से उतनी ही मौहब्बत करते हैं, जितना कि पृथ्वी आपसे तो शनिवार को शाम 8.30 बजे से रात 9.30 बजे तक अपने घर के तमाम बल्ब और ट्यूब लाइट्स को स्विच ऑफ कर दीजिए। ग्लोबल वॉर्मिंग के शनि के शिकंजे से एक घंटे के लिए धरती को राहत दिलाने की ये एक अंतरराष्ट्रीय कोशिश है वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड यानि डब्लूडब्लूएफ की। भारत में दिल्ली और मुंबई समेत करीब 1500 शहर इस अंतरराष्ट्रीय पहल में शामि हैं और शनिवार 28 मार्च की शाम एक घंटे के लिए बिजली बंद रखेंगे। 28 मार्च की शाम 8.30 बजे से रात 9.30 बजे तक के समय को अर्थ ऑवर का नाम दिया गया है। डब्लूडब्लूएफ ने इस साल ऐसे 60 अर्थ ऑवर मनाने का लक्ष्य तय किया है।
सवाल ये कि भला बिजली बंद करने से ग्लोबल वॉर्मिंग यानि धरती के ताप से क्या लेना-देना? बिजली बंद इसलिए की जा रही है, क्योंकि इस एक घंटे के अर्थ ऑवर से दुनियाभर में लाखों मेगावॉट बिजली की बचत होगी। ऊर्जा की बचत का सीधा संबंध कुदरत के संसाधनों के संरक्षण से है। हालांकि ये कोशिश तपते हुए तवे में पानी के छींटे जैसी ही है। लेकिन फिरभी एक छोटा सा छींटा ही सही, मां भूमि को कुछ पलों की राहत तो मिलेगी।

गुरुवार, 26 मार्च 2009

चढ़ रहा है पृथ्वी का बुखार– 3 बुरी खबरें


पृथ्वी का ताप झेलने के लिए तैयार हो जाइए, क्योंकि बुरी खबरों का दौर शुरू हो चुका है। ग्लोबल वॉर्मिंग का मुद्दा सेमिनार और विचार गोष्ठियों के हवाले कर हम निश्चिंत हो गए कि धरती को बचाने में हमने भी हाथ लगा दिया। एक बेहद संवेदनशील मुद्दे के समाधान में हमने तमाम वक्त जाया कर दिया। अपने देश की ही बात करें तो सरकार में शामिल संतरी से लेकर मंत्री तक सब इसे अमेरिका और यूरोप जैसे विकसित देशों की समस्या ही माने बैठे हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत ये कि देश में सरकार बनाने वाले लोकसभा चुनावों में किसी भी राजनीतिक दल के घोषणापत्र में पृथ्वी को बचाने की पहल का जिक्र तक नहीं है। और देश की मीडिया को तो नेताओं के पोतड़े ही साफ करने से फुरसत नहीं है। लोगों को जागरूक करना यहां भी एजेंडे में नहीं है, इसलिए ग्लोबल वॉर्मिंग जैसा अहम मुद्दा गायब है।
जैसा कि मैंने पहले कहा, बुरी खबरों का दौर शुरू हो गया है, क्योंकि कुदरत ने हमें जो वक्त दिया था हमने उसे ग्लोबल वॉर्मिंग की शो-केसिंग में जाया कर दिया। इस पोस्ट को लिखते वक्त मुझे काफी तकलीफ हो रही है, क्योंकि अब कुदरत की वो तस्वीर सामने नजर आ रही है जो किसी भी तरह से शुभ नहीं है और इससे से बुरी बात ये कि इसे रोका नहीं जा सकता। भारतीय और जर्मन वैज्ञानिकों की एक टीम ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने की कोशिश में जुटी थी। पहली बुरी खबर ये है कि उनकी तमाम कोशिशें बेकार हो गई हैं। इस इंडो-जर्मन अभियान की नाकामी से वैज्ञानिकों को बहुत बड़ा धक्का लगा है, क्योंकि इसका मकसद ग्लोबल वॉर्मिंग यानि पृथ्वी का ताप बढ़ाने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) गैस को समुद्र की तली में दफन करना था।
पृथ्वी पर फल-फूल रहे जीवन को बचाने की इस कोशिश में शामिल वैज्ञानिकों में 29 वैज्ञानिक भारत से थे। इस अभियान के तहत अंटार्कटिक के पास काफी बड़े इलाके के समंदर में काफी मात्रा में आयरन यानि लोहे का पावडर छिड़का गया। आइडिया ये था कि इस लौह पावडर से एक खास किस्म के शैवाल तेजी से पनपेंगे जो कि वातावरण में मौजूद कार्बन डाई ऑक्साइड को तेजी से सोख लेंगे। इस तरह हमें वातावरण की कार्बन डाई ऑक्साइड से छुटकारा मिल जाएगा। इंडो-जर्मन वैज्ञानिक अभियान ने 300 वर्ग किलोमीटर के दायरे में करीब चार टन आयरन का छिड़काव किया। इससे शैवाल दोगुने आकार के हो गए लेकिन समस्या तब पैदा हुई जब समुद्री जीव इन्हें चट कर गए। गोवा स्थित नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ ओशनोग्राफी के एस। डब्ल्यू. ए. नकवी का कहना था, समुद्री जीवों के शैवाल खाने से यह कार्बन डाई ऑक्साइड फिर से वातावरण में पहुंच गई। इस तरह महीनों की मेहनत और करोड़ों डॉलर का अभियान बेकार हो गया।
दूसरी बुरी खबर हिमालय से आई है। हिमालय के ग्लेशियरों पर पृथ्वी के ताप का असर सबसे ज्यादा हो रहा है। हाल ही में वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के रवींद्र कुमार चौजर के नेतृत्व में शोधकर्ताओं की एक टीम ने उत्तराखंड के केदारनाथ धाम के पास चोराबारी ग्लेशियर का खास अध्ययन किया है। इन वैज्ञानिकों ने ग्लेशियर से बनने वाले मोरैन की स्टडी की। मोरैन मिट्टी और पत्थरों के इकट्ठा होने से बनते हैं। इन मौरेन में 2 हजार लाइकेंस (एक प्रकार का जीव) पाए गए। इन लाइकेंस का ग्रोथ रेट और वातावरण के संपर्क में आने के बाद इनके बढ़ने में लगने वाले समय से पता चलता है कि इस इलाके में मौसम में परिवर्तन 258 साल पहले शुरू हो गया था। यानि ग्लोबल वॉर्मिंग यानि पृथ्वी के ताप का असर सबसे पहले हिमालय के ग्लेशियर्स पर ही पड़ा था। इन वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि ग्लेशियर तेजी के साथ पिघल रहे हैं, यानि इन गर्मियों में हमें मैदानी इलाकों में बाढ़ की और भी विपदा झेलनी होगी। ये सिलसिला अगर जारी रहा तो वो वक्त ज्यादा दूर नहीं जब देश के एक अरब से ज्यादा लोगों की प्यास बुझाने वाली नदियां सूखने लगेंगीं। ग्लोबल वॉर्मिंग का सबसे पहला असर हिमालय के ग्लेशियरों पर पड़ा था, लेकिन अब इसका विस्तार पृथ्वी के उत्तर और दक्षिणी ध्रुव तक हो चुका है।
तीसरी बुरी खबर भी एंटार्कटिक से ही मिली है। न्यूजीलैंड, अमेरिका, इटली और जर्मनी जैसे देशों के 50 से ज्यादा वैज्ञानिकों के अंटार्कटिक जियॉलजिकल ड्रिलिंग रिसर्च प्रोग्राम की अध्ययन रिपोर्ट ने सख्त चेतावनी दी है। चेतावनी ये है कि अगर वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा जरा भी बढी तो उससे अंटार्कटिक की बर्फीली सफेद चादर पिघलनी शुरू हो जाएगी। मौजूदा हालात ये है कि अंटार्कटिक की बर्फीली चादर के बड़े हिस्से पिघल चुके हैं। टीम के लीडर प्रोफेसर टिम नैश के मुताबिक, रॉक और सेडिमेंड कोर से मिली नई जानकारी बताती है कि पृथ्वी की धुरी के झुकाव में आने वाले बदलावों ने समुद्री तापमान को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई है। टिम विक्टोरिया यूनिवर्सिटी ऑफ वेलिंगटन के ऐंटार्कटिक रिसर्च सेंटर में प्रोफेसर हैं। प्रो. टिम के मुताबिक, ऐसा भी लगता है कि जब 40 लाख साल पहले वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड गैस का कंसंट्रेशन 400 पार्ट्स पर मिलियन पहुंचा होगा, तब इस कारण हुई ग्लोबल वॉर्मिंग से पृथ्वी के झुकाव में बदलाव आया होगा। नतीजतन, आइस शीट के आकार में भी बड़ी तब्दीली देखी गई होगी। प्रो. टिम के मुताबिक, आज एक बार फिर वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड का कंसंट्रेशन 400 पार्ट्स पर मिलियन के करीब पहुंच रहा है।

रविवार, 22 मार्च 2009

तलाश मंगल पर जीवन की !


मंगल ग्रह अब भी हमारे लिए एक अनसुलझी पहेली जैसा ही है। ये तस्वीर है मंगल पर मौजूद एक पठार की जिससे मीथेन गैस फूट रही है, वैज्ञानिकों का मानना है कि ये पठार दलदली है और इसकी गहराई में बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीवों के रूप में जिंदगी के निशान मौजूद हो सकते हैं। माना जा रहा है कि मंगल के बैक्टीरिया ही इस पठार से फूटने वाली मीथेन गैस को पैदा कर रहे हैं। मंगल पर इस जैसे तीन दलदली पठार खोजे गए हैं, जिनसे बुलबुले के रूप में मीथेन गैस फूट रही है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इन पठारों से कुछ किलोमीटर नीचे माहौल जरूर कुछ ऐसा होगा जहां अपने तरल रूप में पानी और उसकी नमी में फलते-फूलते बैक्टीरिया मौजूद होंगे।
क्या मंगल पर जीवन है ? हम इस सवाल का जवाब तलाशने में जुटे हैं और अब तक हमें इतना ही पता चला है कि मंगल पर पानी अपने तरल रूप में मौजूद है। हर सुबह मंगल के ध्रुवीय इलाकों पर ओस की चादर बिछ जाती है। यहीं नासा के मिशन फीनिक्स ने हमें पृथ्वी से दूर पहली बार पानी की बूंद की झलक दिखाई थी। फीनिक्स ने हमें ये भी बताया था कि मंगल का पानी थोड़ा खारा है, मंगल की मिट्टी जहरीली नहीं है और करीब पृथ्वी की मिट्टी जैसी ही है, जिसमें पेड़-पौधे उगाए जा सकते हैं। यानि मंगल का माहौल इतना घातक नहीं है कि जीवन वहां पनप ही न सके। मंगल पर जिंदगी के खिलाफ बस दो ही चीजें हैं, एक तो शून्य से नीचे का तापमान और दूसरा सूरज के खतरनाक विकिरण से नहाई मंगल की धरती। हां, मंगल की धरती पर बसने का ख्याल कुछ ठीक नहीं, यहां हमें कई मुश्किलों का सामना करना होगा। लेकिन अगर हम मंगल की धरती के नीचे जाएं तो सारी मुश्किलें आसान होती नजर आती हैं। मंगल की धरती पर धूल-गर्द की ऊपरी पर्त के नीचे कई मीटर मोटी ठोस बर्फ की चादर मौजूद है। विकिरण कोई भी हो, वो बर्फ पर असर नहीं करता, इसलिए बर्फ की इस चादर के नीचे मौजूद मंगल की वो अनदेखी दुनिया सूरज के विकिरण से बेअसर है और यही वजह है कि मंगल पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि मंगल पर अगर कहीं जीवन मौजूद है तो वो यहीं होगा।

शनिवार, 21 मार्च 2009

यूएफओ पर नई बहस

क्या ये यूएफओ हैं ? लंदन के बिल्डर डेरेक बर्डन की मानें तो हां, ये तस्वीर भी उन्होंने ही खींची है। धरती से परे जीवन है या नहीं ? सदियों पुराने इस सवाल के हालिया संदर्भ देखें तो नासा के केप्लर मिशन ने एक बार फिर इस पुराने सवाल पर नई बहस की शुरुआत की। धरती से परे जीवन पर कुछ भी कहने- न कहने से बचते हुए इसरो ने पृथ्वी की सतह से 40 किलोमीटर ऊपर बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीवों की मौजूदगी खोजने की घोषणा की। लेकिन साइंस से परे इस सवाल पर अपने ढंग का एक नया एंगिल जोड़ दिया है इस तस्वीर ने।
इस तस्वीर का किस्सा कुछ यूं है कि लंदन के वेस्ट एंड में मौजूद कोवेंट गार्डन इलाके में बिल्डर डेरेक बर्डन 16 मंजिली इमारत के निर्माण का काम देख रहा था। वाक्या 14 मार्च का है, और उस दिन 40 साल का ये बिल्डर अपनी निर्माणाधीन इमारत ओरियन हाउस की 16वीं मंजिल पर मौजूद था, और उसकी घड़ी लंदन की सुबह के साढे आठ बजा रही थीं। बर्डन कुछ सामान के आने का इंतजार कर रहा था इसलिए वक्त काटने के लिए वो अपने मोबाइल कैमरे से इस ऊंचाई से लंदन स्काई का पैनोरमा शॉट लेने लगा। बर्डन ये शॉट अपनी पत्नी साराह के लिए ले रहा था, जो लंदन से दूर रहती थी। उस दिन और कुछ नहीं हुआ, बर्डन ने फोटोग्राफ्स लिए और फिर अपने काम में खो गया।
घर जाकर जब उसने ये फोटेग्राफ्स अपनी पत्नी साराह को दिखाए तो साराह ने इन तस्वीरों में मौजूद यूएफओ जैसी आकृतियों को पहली बार पहचाना। साराह ने पूछा कि आसमान के दाईं ओर ये लाइट्स जैसी क्या चीज नजर आ रही है ? बर्डन का कहना है कि वो खुद यूएफओ के वजूद पर यकीन नहीं रखता लेकिन ये फोटोग्राफ देखकर वो भी हैरत में पड़ गया। उसने बताया कि मुझे नहीं पता कि ये यूएफओ जैसी नजर आ रही चीजें क्या हैं, मैंने इन तस्वीरों से जरा भी छेड़छाड़ नहीं की है और ये वैसी ही हैं जैसाकि उस दिन आसमान नजर आ रहा था। क्या ये प्रकाश के परावर्तन का कमाल है ? अगर हां, तो सवाल ये कि प्रकाश आखिर किस चीज से परावर्तित हो रहा था, खैर इतना जरूर है कि इस तस्वीर ने यूएफओ के वजूद को लेकर एक बहस फिर से छेड़ दी है।

गुरुवार, 19 मार्च 2009

धरती से दूर जीवन की तलाश - इसरो की कोशिश



इसरो ने 8 साल पहले किया गया अपना एक पुराना प्रयोग फिर दोहराया और उसके नतीजों की घोषणा चार साल के एहतियात के बाद अब जाकर की है। 2001 इसरो ने अपने इस प्रयोग में धरती की सतह से 40 किलोमीटर ऊपर बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीव खोजे थे। इसके चार साल बाद 2005 में इसरो ने ये प्रयोग दोबारा वैज्ञानिकों की नई टीम के साथ दोहराया और 2001 में की गई जल्दबाजी और इसकी वजह से उठे विवाद को ध्यान में रखते हुए चार साल तक एहतियात बरतने के बाद 2005 के प्रयोग के नतीजों की घोषणा अब कहीं जाकर की है। इस बार भी इसरो ने पृथ्वी की सतह से 40 किलोमीटर ऊपर बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीव खोज निकाले हैं। लेकिन 2001 में उठे विवाद को जाने बगैर इस खोज का अर्थ नहीं समझा जा सकता।
2001 में वैज्ञानिक जयंत नार्लीकर और श्रीलंकाई मूल के उनके ब्रिटिश साइंटिस्ट दोस्त चंद्रा विक्रमासिंघे की पहल पर इसरो ने मौसम का मिजाज जानने के लिए छोड़े जाने वाले हीलियम गैस के गुब्बारे के साथ कुछ खास उपकरण बांधकर उड़ाए थे। इस प्रयोग का मकसद ये जानना था कि पृथ्वी की सतह से करीब 40 किलोमीटर ऊपर जहां वायुमंडल की ऊपरी पतली पर्त सूरज के घातक अल्ट्रा-वायलेट किरणों की बौछार सहती है, क्या वहां जीवन के तत्व मौजूद हैं ? प्रयोग सफल रहा उपकरण जब वापस आया तो उसके साथ बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीवों के नमूने भी थे। जयंत नार्लीकर और विक्रमासिंघे इन नतीजों से बहुत ज्यादा उत्साहित थे। नार्लीकर और विक्रमासिंघे ने अलग-अलग देशई और विदेशी मीडिया में अपने प्रयोग के नतीजों का खुलकर प्रचार किया। विक्रमासिंघे ने कहा कि 40 किलोमीटर की ऊंचाई पर मिले ये सूक्ष्मजीव धरती के नहीं हैं, उन्होंन इन्हें प्रांसपर्मिया का नाम दिया और कहा कि ये सूक्ष्मजीव किसी धूमकेतु यानि कॉमेट की पैदाइश हैं जो पृथ्वी के करीब से गुजरते वक्त रास्ते में इन्हं बिखेरता चला गया, बाद में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की वजह से ये खिंचकर वायुमंडल की ऊपर पर्त में इकट्ठा हो गए। हमारे देश के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डॉ. नार्लीकर ने भी विक्रमासिंघे के प्रांसपर्मिया सिद्धांत का समर्थन किया। कुछ ही दिनों बाद दुनिया दो नई बीमारियों की चपेट में आ गई, जिनके नाम थे - सार्स और बर्ड फ्लू। नार्लीकर और विक्रमासिंघे दोनों ने तब मीडिया में कहा कि सार्स और बर्ड फ्लू के वायरस इस दुनिया के नहीं हैं, बल्कि वो भी प्रांसपर्मिया की तरह किसी गुजरते हुए धूमकेतु या कॉमेट से धरती के ऊपर छिड़क दिए गए हैं। जयंत नार्लीकर ने अपनी इस परिकल्पना को मजबूती देने के लिए सवाल खड़ा किया कि बताइए भला ये कैसे मुमकिन है कि सार्स और बर्ड फ्लू की शुरुआत एशिया से हुई, लेकिन 24 घंटे के भीतर ये वायरस दुनिया के दूसरे छोर कनाडा में पाए गए। तब उन्होंने कहा था कि इससे दो बातें साबित होती है , पहली ये कि जीवन केवल पृथ्वी पर ही नहीं बल्कि कई और ठिकानों पर भी आबाद है, और दूसरी ये कि धरती से दूर किसी आवारा कॉमेट पर पनपते वॉयरस जैसे जीन पृथ्वी पर जीवन के लिए गंभीर समस्या खड़ी कर सकते हैं। खास बात ये रही कि नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे ने पूरी दुनिया में इस प्रयोग को अपना कह कर प्रचारित किया और दूसरा ये कि इसरो ने इन वैज्ञानिकों की तमाम बयानबाजी के दौरान खामोश रहकर इनकी परिकल्पनाओं को अवैज्ञानिक समर्थन दिया। लेकिन विश्व मीडिया ने इसकी खबर छापने के साथ जमकर सवाल भी खड़े किए और नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे की जमकर खिंचाई भी की। जब आलोचना बढ़ने लगी तो नार्लीकर ने ये कहकर दामन बचाने की कोशिश की कि मीडिया ने उनकी बातों को गलत ढंग से लिया है। तब से नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे खामोश हो गए और मीडिया से परहेज करने लगे। इसरो ने 2001 में किए गए इस प्रयोग को चार साल बाद 2005 में फिर से दोहराया, लेकिन इस बार इसरो ने ये प्रयोग टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) के वैज्ञानिकों को साथ लेकर किया। हीलियम से भरे मौसम के गुब्बारे पर फिरसे उपकरण बांधकर छोड़े गए और ये उपकरण धरती की सतह से 40 किलोमीटर की ऊंचाई से जो नमूने लेकर लौटे उनकी जांच सीसीएमबी हैदराबाद और एनसीसीएस पुणे की प्रयोगशालाओं में की गई। इन प्रयोगशालाओं ने इन सैंपलों की जांच के बाद धरती से 20 से 41 किलोमीटर ऊपर 12 तरह के बैक्टीरिया और 6 तरह की फफूंद पाए जाने की पुष्टि की है। सबसे खास बात यह कि इनमें बैक्टीरिया की तीन किस्में ऐसी पाई गई हैं, जिनका जैविक ढांचा धरती पर पाए जाने वाले किसी भी जीव से नहीं मिलता। ये सैंपल स्ट्रेटोस्फेयर से लिए गए हैं जहां मान्य धारणाओं के मुताबिक अल्ट्रावायलेट किरणें जीवन की कोई संभावना ही नहीं छोड़तीं।
लेकिन इन खास सूक्ष्मजीवों के बारे में ये नतीजा निकालना कि ये धरती से बाहर मौजूद जिंदगी के नमूने हैं, बचकानापन और जल्दबाजी होगी। इसकी वजह ये कि हमारी पृथ्वी पर ही कई बैक्टीरिया ऑक्सीजन के बिना भी ऐसे हालात में मजे से जी रहे हैं जहां जिंदगी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि ये सूक्ष्मजीव पृथ्वी के ही बाशिंदे हैं, जो हो सकता है कि किसी ज्वालामुखी के विस्फोट से अंतरिक्ष में पहुंच गए हों और वहां के वातावरण में पनप गए हों। इनमें से एक प्रजाति का नामकरण इसरो के प्रयोग को समर्पित किया गया है और उसका नाम बेसिलस इसरोनेसिस रखा गया है। एक अन्य प्रजाति का नाम भारतीय खगोलबिद आर्यभट्ट को समर्पित किया गया है और उसका नाम बेसिलस आर्यभट्ट रखा गया है, वहीं तीसरी प्रजाति का नाम जेनीबैक्र होयले रखा गया है और इसे वैज्ञानिक फ्रेड हॉयल को समर्पित किया गया है। इस सबके बीच मजेदार बात ये कि अमेरिकी और दुनिया के दूसरे वैज्ञानिकों ने न तो 2002 में नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे के सीना ठोंककर किए जा रहे दावों पर ध्यान दिया था और न ही अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय अब इसरो के ताजा ऐलान से प्रभावित हुआ है। साथ ही इस बार नार्लीकर और उनके दोस्त विक्रमासिंघे दोनों ने ही गहरी खामोशी ओढ़ रखी है। अमेरिकी और यूरोपियन वैज्ञानिक शुक्र के बादलों में बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मजीवों के होने की संभावना पर काम कर रहे हैं। लेकिन इसरो के 2005 के प्रयोग और इनके नतीजों की ताजा घोषणा पर अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थानों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।

बुधवार, 18 मार्च 2009

अंतरिक्ष में इंद्रधनुष


ये देखिए, अंतरिक्ष में इंद्रधनुष। ये इंद्रधनुष जैसा नजर जरूर आ रहा है, लेकिन असलियत में ये इंद्रधनुष है नहीं, बल्कि कुछ और है। ये है कुछ वक्त पहले तक आसमान में किसी जलते बल्ब सा दिखता रहा हमारा पड़ोसी ग्रह शुक्र है। अब इसकी चमक कुछ फीकी पड़ गई है, इसकी एक वजह तो ये कि शुक्र अब सूरज ढलने के बाद पश्चिम दिशा में क्षितिज के नजदीक चला गया है और दूसरी वजह ये कि जिस तरह हमारा चंद्रमा अमावस के बाद पतली फांक सा नजर आता है, उसी तरह शुक्र भी अब केवल 4 फीसदी ही नजर आ रहा है। शुक्र की ये इंद्रधनुषी तस्वीर एक खास टेलिस्कोप से ली गई है और इसमें शुक्र किसी कलाकार के ब्रश के एक इंद्रधनुषी रंगों के स्ट्रोक जैसा इसलिए नजर आ रहा है, क्योंकि हमारी पृथ्वी का वातावरण एक प्रिज्म की तरह काम कर रहा है। शुक्र को देखने का ये अब साल का अंतिम मौका है, क्योंकि इसके बाद शुक्र गर्मियों की शुरुआत का ऐलान करते सूरज की चमक के सामने फीका पड़ जाएगा।

सोमवार, 16 मार्च 2009

एक अनोखी खोज !




शिकागो के बटाविया में मौजूद फर्मी लैब के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी खोज की है , जिससे आधुनिक भौतिक विज्ञान की धारा ही अब बदल जाएगी। फर्मी लैब के पार्टिकिल कोलाइडर मशीन में 20 अरब कणों की टक्कर से सिंगल टॉप क्वार्क्स कण पैदा हुआ है। खास बात ये है कि 1995 में सिंगल टॉप क्वार्क की सैद्धांतिक खोज के बाद से ही वैज्ञानिक इस काल्पनिक कण को प्रयोगशाला में पैदा करने की कोशिश में जुटे हुए थे। साइंस की ये 14 साल पुरानी कोशिश अब कहीं जाकर कामयाब हुई है। सिंगल टॉप क्वार्क, हिग्स बोसॉन के जैसा ही एक सैद्धांतिक कण है। दरअसल 14 अरब साल पहले जब ऊर्जा के महाविस्फोट के बाद पदार्थ के शुरुआती कणों ने जन्म लिया तो उन कणों का गुण-धर्म तय करने वाले कई दूसरे अनजाने कण भी अस्तित्व में आ गए, मिसाल के तौर पर सिंगल टॉप क्वार्क और हिग्स बोसॉन। आधुनिक भौतिकी के सिद्धांत बताते हैं कि हिग्स-बोसॉन की मौजूदगी ने ही पदार्थ के कणों में वजन पैदा किया। लेकिन हिग्स बोसॉन इस कदर रहस्यमय हैं कि वैज्ञानिकों ने उन्हें गॉड पार्टिकिल यानि ईश्वरीय कणों का नाम दे रखा है। 2008 में 10 अगस्त को हुए लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर के महाप्रयोग से भी इन गॉड पार्टिकिल्स की मौजूदगी के सबूत मिलने की उम्मीद बंधी थी, लेकिन तकनीकी गड़बड़ी की वजह से ये प्रयोग ही बीच में बंद कर देना पड़ा, अब ये महाप्रयोग 2009 के अंत में होगा। लेकिन इसबीच फर्मी लैब ने एलएचसी से बाजी मार ली है। फर्मी लैब ने सिंगल टॉप क्वार्क कण को पैदा कर भूसे में से सूई ढूंढ निकालने जैसा कारनामा कर दिखाया है। इस खोज के बाद पूरे भौतिक विज्ञान जगत का यकीन पुख्ता हो गया है कि वो गॉड-पार्टिकिल को भी खोज निकालने में कामयाब रहेंगे। दरअसल, वैज्ञानिक एक सवाल पर हमेशा से बहस करते रहे हैं कि ब्रह्मांड की चीजें, यहां तक कि इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन जैसे मूल अणुओं में मास यानि द्रव्यमान कहां से आता है। द्रव्यमान को बोलचाल की भाषा में हम वजन समझ लेते हैं लेकिन ये वजन से बिल्कुल अलग है। असल में जब द्रव्यमान पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति काम करती तो वजन पैदा होता है। मिसाल के लिए अगर हम चांद पर जाएं तो हमारे शरीर का द्रव्यमान वही रहेगा लेकिन उसका वजन कम हो जाएगा। वजह ये कि चांद पर गुरुत्वाकर्षण में कमी आने से हमारा वजन घट जाता है। भौतिक विज्ञान के मुताबिक पदार्थ में वजन का समावेश होता है हिग्स-बोसॉन यानि गॉड पार्टिकिल की वजह से जो अब तक भौतिक वैज्ञानिकों की आंखों से बचता रहा है। हिग्स बोसोन कण की खोज 1964 में ब्रिटिश भौतिकविद् पीटर हिग्स और भारतीय भौतिक विज्ञानी सत्येंद्रनाथ बोस ने की थी। 1924 में बोस ने एक सांख्यिकीय गणना का जिक्र करते हुए एक पत्र आइंस्टीन के पास भेजा था, जिसके आधार पर बोस-आइंस्टीन के गैस को द्रवीकृत करने के सिद्धांत का जन्म हुआ। इस सिद्धांत के आधार पर ही प्राथमिक कणों को दो भागों में बांटा जा सका और इनमें से एक का नाम बोसोन रखा गया जबकि दूसरे का नाम इटली के भौतिक वैज्ञानिक इनरिको फर्मी के नाम पर रखा गया। दशकों बाद 1964 में ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिग्स ने बिग बैंग के बाद एक सेकेंड के अरबवें हिस्से में ब्रह्मांड के द्रव्यों को मिलने वाले भार का सिद्धांत दिया, जो बोस के बोसोन सिद्धांत पर ही आधारित था। इसे बाद में 'हिग्स-बोसोन' के नाम से जाना गया। इस सिद्धांत ने न केवल ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्यों को जानने में मददगार साबित हुआ बल्कि इसके स्वरूप को परिभाषित करने में भी मदद की।
गॉड पार्टिकिल के रहस्य का एक संक्षिप्त इतिहास है। तीस वर्ष पूर्व वैज्ञानिकों ने समीकरणों की एक श्रृंखला बनायी थी, जिसे स्टैंडर्ड मॉडल कहा गया। इसके अनुसार मूलभूत कणों और बलों के संबंध से ब्रह्मांड की संरचना समझायी गयी थी। लेकिन मॉडल मे कुछ कमियां हैं। भौतिकी की यह फितरत रही है कि एक गुत्थी सुलझते ही दूसरी आ खड़ी होती है। जिसे सुलझाने के लिए फिर नए सिरे से खोज शुरू की जाती है। ऐसी ही एक गुत्थी है, पदार्थ में मौजूद भार के मामले में। समस्या ये थी कि कुछ कणों का भार होता है और कुछ का नहीं। मुख्य थ्योरी ये थी कि कण का भार इस बात पर निर्भर करता है कि वो रहस्यमयी ‘हिग्स फील्ड’ के साथ किस प्रकार अंतरक्रिया करता है, क्योंकि ये फील्ड सारे अंतरिक्ष में फैला हुआ है।
सिंगल टॉप क्वार्क कणों की खोज ने कई गुत्थियां हल कर दी हैं, लेकिन अब गॉड पार्टिकिल को खोज निकालने की नई गुत्थी सामने आ खड़ी हुई है। लेकिन वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि टॉप क्वार्क की खोज के बाद अब गॉड पार्टिकिल की खोज के नए दरवाजे खुल गए हैं।

पहचानिए इस तस्वीर को?

ये तस्वीर किसी नए खोजे गए ग्रह की नहीं है !…फिर ये क्या है ?...दिमाग पर थोड़ा जोर डालकर पहचानने की कोशिश कीजिए !...नहीं पहचान पाए ?...चलिए आपको बता ही देते हैं...ये है तस्वीर हमारे अपने घर, हमारी पृथ्वी की। पृथ्वी की ये तस्वीर बिल्कुल नई और अनोखी है, पृथ्वी का ऐसा रूप आपने अबतक नहीं देखा होगा। पृथ्वी की ये तस्वीर ली है नासा की कॉम्पटन गामा-रे ऑब्जरवेटरी ने। पृथ्वी की ये तस्वीर 7 साल लंबे शोध का नतीजा है। नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर के डॉ. डिर्क पेट्रे ने 7 साल तक इस ऑब्जरवेटरी से डेटा कलेक्ट करने के बाद पृथ्वी की ये तस्वीर तैयार की है। डॉ. पेट्रे का कहना है कि गहन अंतरिक्ष से हमारी पृथ्वी ऐसी ही नजर आती है। इस तस्वीर में पृथ्वी के ऊपरी वायुमंडल में लगातार होती कॉस्मिक किरणों की बौछार और इसकी वजह से पृथ्वी से फूटती गामा किरणें दिखाई गई हैं। पृथ्वी से गामा किरणें भी फूटती हैं, इस बात पर अब तक वैज्ञानिकों को संदेह था, लेकिन डॉ. पेट्रे ने अब इसका सबूत भी सामने रख दिया है।

बुधवार, 11 मार्च 2009

प्लूटो की अनोखी दुनिया

सौरमंडल के अंतिम छोर पर मौजूद बर्फीला दुनिया प्लूटो। प्लूटो के वातावरण के बारे में बेहद महत्वपूर्ण जानकारियां सामने आई हैं। हमें पहली बार प्लूटो के वातावरण की झलक मिली है। प्लूटो का वायुमंडल मीथेन से भरपूर है, जैसे कि पृथ्वी का वातावरण ऑक्सीजन से। प्लूटो के वायुमंडल में मीथेन के साथ नाइट्रोजन और कार्बन मोनो ऑक्साइड के कुछ अंश भी मौजूद हैं। खास बात ये कि प्लूटो की जमीन के मुकाबले वातावरण का तापमान 40 डिग्री ज्यादा है। लेकिन इसके बावजूद प्लूटो एक ऐसी दुनिया है जो डीप फ्रिज जैसे हालात में है। यहां का सरफेस टेम्परेचटर शून्य से 220 डिग्री सेंटीग्रेड नीचे है।
प्लूटो के वातावरण की ये नई झलक दिखाई है चिली में मौजूद ला-सिला-पैरानल ऑब्जरवेटरी के यूरोपियन ऑर्गेनाईजेशन फॉर एस्ट्रोनॉमिकल रिसर्च इन द साउदर्न हेमिस्फियर सेंटर ने। 1930 में प्लूटो की खोज से लेकर अगस्त 2006 तक इसे हमारे सौरमंडल का नौवां ग्रह होने का गौरव हासिल था। लेकिन 24 अगस्त 2006 को इससे वो गौरव छीन लिया गया। सभी ग्रहों, चंद्रमाओं और दूसरे आसमानी पिंडों की परिभाषाएं तय करने और उनके नाम निर्धारित करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन ने अगस्त 2006 में दुनियाभर के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर बहस छेड़ी कि आखिर किसे हम ग्रह मानें और किसे नहीं? इस बहस की वजह ये थी कि सौरमंडल के बाहर लगातार नए पिंड खोजे जा रहे थे और ये तय करना बेहद जरूरी हो गया था कि आखिर एक ग्रह की परिभाषा क्या हो ? ग्रहों की परिभाषा को तय करने की ये बहस एक हफ्ते तक चली और इस बहस में एक मौका ये भी आया कि हमारा चंद्रमा भी ग्रह के ओहदे का दावेदार बन गया। इस बहस का अंत ड्वार्फ प्लेनेट्स यानि छुद्र ग्रहों के एक नए वर्ग के साथ हुआ। ये स्वीकार किया गया कि हमारे सौरमंडल में ग्रह और चंद्रमाओं के साथ छुद्र ग्रह यानि ड्वार्फ प्लेनेट्स भी हैं। प्लूटो ग्रह की परिभाषा पर खरा नहीं उतरा और इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन ने प्लूटो को ग्रह का दर्जा दिए जाने को एतिहासिक भूल मानते हुए प्लूटो को ड्वार्फ प्लेनेट यानि छुद्र ग्रह का दर्जा दिया। इस तरह हमारा सौरमंडल एकबार फिर तय किया गया और अंतिम रूप से घोषित किया गया कि हमारे सौरमंडल में ग्रहों की संख्या 9 नहीं बल्कि 8 है।

रविवार, 8 मार्च 2009

अंतरिक्ष के डांस प्लोर पर थिरकते ब्लैक होल्स !

दूर गहन अंतरिक्ष में दो ब्लैकहोल एक-दूसरे के आस-पास नाचते दिखाई दिए हैं। बहुत बडे़ आकार वाले इन ब्लैकहोल्स की गुरुत्वाकर्षण शक्ति बहुत ज्यादा है। ये पृथ्वी से पांच अरब प्रकाश वर्ष दूर स्थित हैं। एक प्रकाश वर्ष वह दूरी है जितना प्रकाश की किरण एक साल में तय करती है। अमेरिका के न्यू मेक्सिको स्थित अपाचे पॉइंट अब्जर्वेटरी से मिले आंकडे़ इस अद्भुत घटना के बारे में सबसे बेहतर सबूत पेश करते हैं। एरिजोना की नैशनल ऑप्टिकल एस्ट्रोनॉमी अब्जर्वेटरी के एस्ट्रोनॉमर टॉड बोरोसन के मुताबिक, एक आकाशगंगा या गैलेक्सी के केंद में दो ब्लैकहोल्स का पाया जाना बाइनैरी सिस्टम कहलाता है। बोरोसन कहते हैं कि ये दोनों नाचते ब्लैकहोल भी धीरे-धीरे एक हो जाएंगे और एक बड़ा ब्लैकहोल बना लेंगे। हालांकि, वैज्ञानिकों का मानना है कि एक ही आकाशगंगा में दो ब्लैकहोल पाया जाना एक आम बात है, लेकिन असलियत में ऐसा देखने में कम ही आता है। असल में हम ब्लैकहोल को नहीं देख सकते लेकिन हम उनके असर को देख सकते हैं। इस मामले में भी बोरोसन और लॉयर ने उन चीजों से निकले वाले रेडिएशन को पकड़ा जिन्हें ये ब्लैकहोल अपने भीतर खींच रहे थे। इन दो ब्लैकहोल में एक बड़ा और दूसरा छोटा है। छोटा ब्लैकहोल हमारे सूरज से दो करोड़ गुना बड़ा है, जबकि बडे़ आकार वाला ब्लैकहोल सूरज से एक अरब गुना बड़ा है। बोरोसन के मुताबिक, ये दोनों ब्लैकहोल एक-दूसरे का चक्कर लगाने में लगभग 100 वर्षों का समय लेंगे और ये एक-दूसरे से एक प्रकाश वर्ष के 3/10 की दूरी पर स्थित हैं।

बुधवार, 4 मार्च 2009

आ रहे हैं शनि महाराज !

तैयार हो जाइए शनि आपसे मुलाकात करने आ रहे हैं। 8 मार्च को हमारे सौरमंडल का ये सबसे खूबसूरत ग्रह हमारे सबसे करीब होगा। इस दिन सूरज के चक्कर काटते हुए शनि अपने परिक्रमा पथ पर कुछ ऐसी स्थिति में आ रहा है कि वो पृथ्वी और सूरज इसके एकसीध में होंगे। इस स्थिति को अपोजीशन कहते हैं। 8 मार्च को शनि पृथ्वी के सबसे करीब होगा और तब पृथ्वी से इसकी दूरी होगी करीब 12 करोड़ 56 लाख किलोमीटर। शनि को देखने और उसकी तस्वीरें लेने का ये सबसे बढ़िया मौका है और दुनियाभर के एस्ट्रोनॉमर इसदिन शनि पर निगाहें जमाए रहेंगे। शनि को देखने का सबसे अच्छा तरीका ये है कि 8 मार्च को डूबते हुए सूरज की विपरीत दिशा यानि पूर्व की ओर देखें। सूरज डूबने के साथ ही पूरिव दिशा में एक सुनहरा सितारा नजर आने लगेगा। यही है हमारे सौरमंडल का सबसे खूबसूरत ग्रह शनि। देश के अलग-अलग शहरों में 8 मार्च को शनि के उदय होने और अस्त होने का समय इस प्रकार है -
8 मार्च को शनि के उदय होने का समय और शनि के अस्त होने का समय
बैंगलोर शाम 6 बजकर 27 मिनट सुबह 6 बजकर 46 मिनट
चेन्नई शाम 6 बजकर 16 मिनट सुबह 6 बजकर 35 मिनट
दिल्ली शाम 6 बजकर 20 मिनट सुबह 6 बजकर 56 मिनट
कोलकाता शाम 5 बजकर 39 मिनट सुबह 6 बजकर 8 मिनट
मुंबई शाम 6 बजकर 42 मिनट सुबह 7 बजकर 8 मिनट
पुणे शाम 6 बजकर 38 मिनट सुबह 7 बजकर 3 मिनट

मंगलवार, 3 मार्च 2009

सफर को तैयार, अनोखे मंगल यात्री !

हम सदियों से मंगल ग्रह पर जीवन की खोज कर रहे हैं, लेकिन हमें अब तक कुछ खास कामयाबी नहीं मिली है। मंगल ग्रह पर जिंदगी की खोज ने अब एक नया मोड़ ले लिया है। हम अब खुद वहां जाने की तैयारियां कर रहे हैं। लेकिन हमसे पहले कुछ खास अंतरिक्षयात्री मंगल के चंद्रमा फोबे पर भेजे जाएंगे। ये खास अंतरिक्षयात्री होंगे हमारे आसपास पाए जाने वाले बैक्टीरिया, बीजाणु और कुछ कीट-पतंगों के साथ हमारी जानी-पहचानी फफूंदी। इन खास धरतीवासियों को मंगल के चंद्रमा पर भेजने का काम कर रही हैं रूसी स्पेस एजेंसी और अमेरिकी प्लेनेटेरी सोसाइटी। इस खास प्रयोग के पीछे मकसद ये जानना है कि धरती के बाहर तीन साल के सफर के दौरान अंतरिक्ष जीवन के इन स्वरूपों पर क्या असर डालता है। मंगल के दो चंद्रमा हैं फोबे और डिमॉस, खास बात ये कि दोनों ही मंगल के प्राकृतिक चंद्रमा नहीं हैं, ये दोनों विशाल उल्काएं हैं जो मंगल के गुरुत्वाकर्षण से खिंचकर उसके करीब आ गईं और अब दो चंद्रमा बनकर उसके चक्कर काट रहे हैं। मंगल के इन दो चंद्रमाओं पर माहौल मंगल के मुकाबले कहीं ज्यादा सख्त और जीवन के लिए बेहद मुश्किल है। मंगल भेजे जा रहे, जिंदगी के ये स्वरूप धरती पर बेहद विपरीत स्थितियों में भी खुद को बचाने में कामयाब रहे हैं। अब देखना ये है कि मंगल के चंद्रमा फोबे का माहौल इनपर क्या असर डालता है। ये प्रयोग बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके नतीजों से हमें मंगल पर जाने वाले पहले मानव मिशन को तैयार करने में मदद मिलेगी।

तीन आकाशगंगाओं में टक्कर !


सितारों भरे आसमान में एक अनोखी हलचल जारी है और इस हलचल की ये तस्वीर भेजी है हब्बल ने। हब्बल की ये तस्वीर है तीन आकाशगंगाओं की जो जूझ रही हैं गुरुत्वाकर्षण के तूफान से। ये तीनों आकाशगंगाएं एक-दूसरे के इतने करीब आ गई हैं कि बस एक-दूसरे से टकराने ही वाली हैं। अंतरिक्ष में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि घूमती हुई दो आकाशगंगाएं एक-दूजे के करीब आ जाती हैं, और तब गुरुत्वाकर्षण बल के तेज खिंचाव से इन आकाशगंगाओं में टक्कर हो जाती है। जब ऐसा होता है तो अंतरिक्ष में भारी हलचल मचती है, और इस हलचल से कई नए सितारे, कई नए सौरमंडल और एक विशाल आकाशगंगा का जन्म होता है। हमसे 100 प्रकाशवर्ष दूर मीन राशि के तारामंडल में ऐसी ही एक घटना हो रही है। लेकिन इस बार टक्कर दो नहीं, बल्कि तीन आकाशगंगाओं में होने वाली है। ये आकाशगंगाएं हैं
NGC 7173 (बीच से बाईं ओर), NCG 7174 (बीच से दाईं ओर) और NGC 7176 (नीचे से दाईं ओर) , अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष में हो रही इस घटना को एक नाम भी दिया है, इसका नाम है हिक्सन कॉम्पैक्ट ग्रुप 90। आपस में टकराने जा रही इन तीन आकाशगंगाओं के इस समूह का नाम एस्ट्रोनॉमर पॉल हिक्सन के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने 1980 में पहली बार आकाशगंगाओँ के इस समूह की खोज की थी।