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सोमवार, 19 जुलाई 2010

'मानव का ये छोटा सा कदम, संपूर्ण मानवता की बहुत बड़ी छलांग है'

20 जुलाई को चंद्रमा पर पहले मानव मिशन की 41वीं वर्षगांठ है। इस अवसर पर 'वॉयेजर' की दो विशेष प्रस्तुतियां -

मुझे याद है, जब मैं छोटा बच्चा था तो लकड़ी के एयरक्राफ्ट बनाया करता था। हवा में उड़ते और कलाबाजियां खाते प्लेन्स की वो तस्वीर मेरे दिमाग में अब भी ताजा है, जिन्हें मैंने बचपन में अपने पिता के साथ एयरशो में देखा था। हम सभी वाकई बड़े खुशनसीब हैं, कि कुदरत ने हमारे लिए वक्त का ऐसा दौर चुना जब इतिहास मानव जाति की तकदीर का फैसला कर रहा था। मैं उन सब लोगों का शुक्रिया अदा करता हूं, जिनकी मेहनत और लगन की वजह से अपोलो-11 कार्यक्रम मुमकिन हो सका और हम सब इतिहास के उस गौरवशाली पन्ने पर अपनी मौजूदगी दर्ज करा सके।

मिशन अपोलो-11 नासा के अंतरिक्ष अभियानों के इतिहास का सबसे ज्यादा प्रचारित अभियान था। इसे लेकर लोगों की अपेक्षाएं बुलंदी पर थीं। अकसर लोग मुझसे पूछते हैं कि अभियान की तैयारी के दौरान मीडिया हाइप और लोगों की अपेक्षाओं को लेकर क्या मैं किसी तरह के मानसिक दबाव से गुजर रहा था? इसका जवाब मैं आज देता हूं, हमारे अभियान को लेकर बाहर की तमाम हलचल से मैंने पीठ मोड़ ली थी। मेरा पूरा ध्यान उन तीन से चार लाख लोगों की मिलीजुली मेहनत पर था, जो इस मिशन को कामयाब बनाने के लिए दिन-रात काम में जुटे थे।

मेरा पूरा ध्यान इस मिशन की कामयाबी पर फोकस था, जिसके लिए इतने सारे लोग काम कर रहे थे। बाहर के तमाशे से मैंने खुद को दूर रखा, मेरे दिमाग में केवल यही बात थी कि प्रोजेक्ट अपोलो-11 के लिए काम कर रहा हर व्यक्ति, हर एसेंबलर कुछ न कुछ बनाने में जुटा था, लोग परीक्षण पर परीक्षण कर रहे थे और लैंडर का हर नट-बोल्ट कई-कई बार परखा जा रहा था। इस मिशन से जुड़े लाखों पुरुष और महिलाएं अपने काम को लेकर इतने आत्मविश्वास से भरे थे कि ये बाते आम थीं कि अगर कुछ गड़बड़ होई तो ये कम से कम हमारे काम की वजह से नहीं होगी। क्योंकि इन सैकड़ों-हजारों लोगों ने अपना काम जितना वो कर सकते थे, उससे बेहतर किया था और जब सारे लोग कुछ बेहतर काम करते हैं तो नतीजा अपने आप शानदार हो जाता है। इसीलिए मिशन अपोलो-11 कामयाब रहा था।
जब मैं जॉनसन स्पेस सेंटर के मैन्ड स्पेसक्राफ्ट सेंटर में अपने मिशन का प्रशिक्षण ले रहा था, तो वहां का माहौल ऐसा था कि आप ये नहीं पूछ सकते थे कि बॉस छुट्टी कब होगी? पूरे जुनून के साथ जुटे लोग तब तक काम में जुटे रहते थे, जबतक कि वो पूरा नहीं हो जाता था। कोई अपनी कलाई घड़ी पर नजर नहीं डालता था कि वक्त क्या हुआ है? पाली खत्म होने की बेल बजती जरूर थी, लेकिन घर कोई भी नहीं जाता था। लोगों ने अपनी लगन से प्रोजेक्ट अपोलो-11 को दूसरे सरकारी कामकाजों से बिल्कुल जुदा बना दिया था। हर कोई इस प्रोजेक्ट में पूरी दिलचस्पी, लगन और उत्साह के साथ जुटा हुआ था। सबके दिलोदिमाग में बस यही बात थी कि हमें कामयाब होकर दिखाना है। ऐसे माहौल में मेरा पूरा ध्यान पूरी तरह से अपने मिशन पर टिका था। एडविन बज एल्ड्रिन और माइकल कोलिंस मेरे लिए अजनबी नहीं थे, जेमिनी और अपोलो के शुरुआती मिशन्स के दौरान हम पहले भी साथ काम कर चुके थे। हमारी टीम नासा के इंजीनियरों और वैज्ञानिकों से लगातार नई-नई समस्याओं पर इंप्रोवाइज किया करते थे, कि अगर ये हो गया तो हम क्या करेंगे? अगर वो हो गया तो हमारा प्लान बी क्या होगा? जितनी मुसीबतों के बारे में हम सोच सकते थे, उन्हें सामने रख कर लंबी बहसें किया करते थे।
20 जुलाई 1969 को हमारा लैंडर ईगल चांद पर लैंड कर गया और अगले दिन 21 जुलाई को मैंने चंद्रमा पर पहले कदम रखे। लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या मैंने पहले से सोचकर रखा था कि चंद्रमा पर उतरने के बाद मैं ये लाइनें बोलूंगा। मैं आज बताता हूं, मैंने पहले से कुछ भी सोचकर नहीं रखा था और न ही कोई तैयारी की थी, हां लैंडर की नौ कदमों वाली सीढ़ी से उतरते वक्त जरूर मेरे दिल में तेज हलचल चल रही थी और इसी बीच मुझे ...जाइंट स्टेप ऑफ मैनकाइंड, वाली लाइनें सूझ गईं। पूरी दुनिया के लिए ये बेहद खास मौका था। मेरे बाद बज एल्ड्रिन उतरे, लोग मुझसे ये भी पूछते हैं कि अपोलो-11 की ज्यादातर फोटोग्राफ्स में बज एल्ड्रिन ही नजर आते हैं, मैं क्यों नहीं? ऐसा इसलिए, क्योंकि चंद्रमा पर हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं था और मैं ज्यादा से ज्यादा फोटोग्राफ्स लेने में जुटा था।

मिशन की तैयारी के दौरान विचार-विमर्श का एक लंबा दौर इस बात को लेकर भी चला कि चंद्रमा पर पहुंचकर हम क्या-क्या करेंगे। तमाम लोगों ने अपने-अपने सुझाव दिए। कुछ का कहना था कि हमें वहां यूनाईटेड नेशंस का झंडा लगाना चाहिए। तो वहीं कुछ लोग चाह रहे थे कि चंद्रमा पर कई देशों के छोटे-छोटे झंडे वहां लगाए जाएं। आखिर में ये फैसला लिया गया और मुझे लगता है कि कांग्रेस ने भी इसमें अपनी भूमिका निभाई कि अपोलो-11 कोई यूनाईटेड नेशंस का मिशन नहीं था और हम कोई वहां किसी मालिकाना हक का दावा करने नहीं जा रहे थे, लेकिन हम चाहते थे कि लोगों को पता चले कि हम यहां हैं, इसलिए हमने तय किया कि अपना राष्ट्रीय ध्वज ही वहां लगाएंगे। अमेरिका के झंडे को वहां लगाना मेरा काम था, चंद्रमा पर इसे लगाया जाना चाहिए या नहीं, इन बातों पर मेरा ध्यान बिल्कुल भी नहीं था। मुझे गर्व है कि अपने देश का झंडा चंद्रमा पर पहली बार मैंने लगाया।

चंद्रमा ने हमें कई तरह से हैरानी में डाल दिया। वहां की कई चीजों से मैं गहरे ताज्जुब में पड़ गया। सबसे ज्यादा हैरानी मुझे वहां के क्षितिज को देखकर हुई, धरती के मुकाबले चंद्रमा का क्षितिज हमारे बेहद करीब था। हमारे कदमों के साथ उड़ती चंद्रमा की धूल, जिसतरह उठकर वापस गिर रही थी, मैं उसे भी देखकर हैरान था। धरती पर आप धूल पर पैर पटकें तो वो उड़कर गुबार की शक्ल में छा जाएगी, लेकिन चंद्रमा पर ऐसा नहीं हो रहा था। हमारे पैर पटकने से धूल उठ रही थी लेकिन कोई गुबार सा नहीं बन रहा था। धरती पर धू का गुबार वायुमंडल की वजह से बनता है, चंद्रमा पर वायुमंडल न होने से धूल हमारे पैरों के आसपास ही छिटक रही थी। चंद्रमा पर धूल तेजी से जमीन पर वापस गिरकर एक नई पर्त बना देती थी। ऐसा लगता था मानो इस धूल को एक हफ्ते पहले उडा़या गया था। ये वाकई हैरतंगेज था, मैंने ऐसा पहले कभी कुछ देखा-सुना नहीं था।

पब्लिक एड्रेस के दौरान लोग सवाल पूछते हैं कि क्या चीन की दीवार और मोंटाना के फोर्ट रेक डैम जैसी इंसानों की बनाई चीजें हमें चंद्रमा से नजर आ रही थीं या नहीं? ये सब अफवाह है और कुछ नहीं, चंद्रमा के क्षितिज से ऊपर हमें नीली पृथ्वी नजर आ रही थी। हमें महाद्वीप और ग्रीनलैंड दिख रहे थे। पृथ्वी लाइब्रेरी में रखे किसी ग्लोब के जैसी लग रही थी। हमें अंटार्कटिक नहीं दिखा, क्योंकि वो हिस्सा बादलों से ढंका था। पृथ्वी के घूमने के साथ हमें अफ्रीका साफ नजर आ रहा था। सूरज की किरणें किसी चीज से परावर्तित हो रहीं थीं, शायद चाड झील से हमने भारत और एशिया भी देखा। लेकिन हमें चंद्रमा से इंसान की बनाई चीन की दीवार या कोई दूसरी चीज नजर नहीं आई। हां, कई लोग ऐसी बातें करते हैं, लेकिन मैं अब तक किसी ऐसे अंतरिक्षयात्री से नहीं मिला जिसे अंतरिक्ष से मानव निर्मित दीवार या इमारतें दिखाई दी हों। यहां तक कि मैंने बाद में स्पेस शटल के साथ जाने वाले अंतरिक्षयात्रियों से भी पूछा, लेकिन चीन की दीवार या कोई दूसरी चीज किसी को अंतरिक्ष से अब तक नजर नहीं आई है।

अंत में मैं अपनी पुरानी इच्छा व्यक्त करना चाहूंगा, मैं मंगल पर जाने वाले अंतरिक्षयात्रियों के मिशन में शामिल होना चाहता हूं। मैं मंगल जाना चाहता हूं। मुझे लगता है, अब हम मंगल के सफर पर जा सकते हैं। हम मंगल को नजरअंदाज नहीं कर सकते, आज नहीं तो कल हमें मंगल पर जाना ही होगा।

- नील आर्मस्ट्रांग

कमांडर, मिशन अपोलो-11

( कमांडर नील आर्मस्ट्रांग के शब्दों में मिशन अपोलो-11 की यादें)

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