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रविवार, 5 सितंबर 2010

आखिर ये ब्रह्मांड ईश्वर की रचना क्यों नहीं है?

वाईकिंग मिथक के अनुसार ग्रहण तब लगता है जब स्कोल और हैती नाम के दो भेड़िए, सूरज या चंद्रमा को जकड़ लेते हैं। इसीलिए जब भी ग्रहण पड़ता था तो वाईकिंग लोग खूब शोर मचाते और ढोल बजाते थे ताकि वो भेड़िए डर कर आसमान से भाग जाएं। कुछ समय बाद लोगों ने महसूस किया कि उनकी गतिविधियों का ग्रहण पर कोई असर नहीं पड़ता और वो चाहे जितनी उछल-कूद मचाएं या शोर-शराबा करें, ग्रहण तो अपने-आप ही खत्म हो जाता है। प्रकृति के तौर-तरीकों की उपेक्षा ने प्राचीन काल में लोगों को उनकी दुनिया के रीति-रिवाजों को तर्कसंगत ठहराने के लिए एक से बढ़कर एक मिथक रचने के लिए प्रेरित किया। लेकिन इसके बावजूद, लोगों की दिलचस्पी दर्शनशास्त्र यानि हर घटना के पीछे की वजह तलाशने में बढ़ती चली गई। अनुभव से अर्जित सहज ज्ञान को आधार बनाकर लोग अपने आस-पास के माहौल और अंतरिक्ष में घटने वाली घटनाओं के रहस्यों को समझने की कोशिश करते रहे। हम अब भी यही करते हैं, बस फर्क इतना है कि अब हम प्रकृति के रहस्यों को समझने के लिए तर्क, गणित और प्रायोगिक परीक्षण यानि दूसरे शब्दों में आधुनिक साइंस का इस्तेमाल करते हैं।
अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, ब्रह्मांड एक ऐसी अबूझ पहेली है, जिसे हल करना नामुमकिन नहीं है। उनका आशय था कि ब्रह्मांड हमारे किसी घर की तरह नहीं है, जहां हर सुबह चीजें बेतरतीब सी नजर आती है। ब्रह्मांड की हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीज यूं ही इधर-उधर नहीं घूम रही, बल्कि ब्रह्मांड में चीजें पूरी तरह नियमबद्ध और अपने तय रास्तों पर ही हैं। ब्रह्मांड की हर चीज नियमों का पालन कर रही है, और वो भी बिना किसी अपवाद के। न्यूटन को यकीन था कि जीवन से धड़कता हमारा अनोखा सौरमंडल, एक महा उथल-पुथल से केवल प्राकृतिक नियमों की बदौलत ही अस्तित्व में नहीं आया है। बल्कि, ये व्यवस्थित ब्रह्मांड,' सबसे पहले भगवान द्वारा उत्पन्न किया गया है और आज तक ये उसी ईश्वरीय व्यवस्था के तहत काम कर रहा है।'
हाल में खोजे गए प्रकृति के कई गूढ़ नियमों से भी ऐसा लग सकता है कि ब्रह्मांड की ये महान डिजाइन किसी महानतम डिजाइनर का ही काम है। फिर भी, कॉस्मोलॉजी की नई खोजें इस बात को विस्तार से समझाती हैं कि ब्रह्मांड के नियम किसी सर्वशक्तिमान के हस्तक्षेप के बिना भी क्यों मानव जाति के अनुकूल नजर आते हैं।
कई विचित्र घटनाओं ने पृथ्वी की डिजाइन को हम मानवों के अनुकूल ढालने की साजिश की है और इन विचित्र घटनाओं की गुत्थी और भी उलझी नजर आती, अगर हमारा सौरमंडल ही ब्रह्मांड का अकेला और इकलौता सौरमंडल होता। लेकिन ऐसा नहीं है, अब हम सैकड़ों नए सौरमंडलों की खोज कर चुके हैं, और अब हमें लग रहा है कि हमारी आकाशगंगा में मौजूद अरबों सितारों में ऐसे ही अनगिनत सौरमंडल वजूद में हो सकते हैं। हर तरह के ग्रह मौजूद हैं और जब किसी ग्रह पर मौजूद कोई संभावित प्राणी अपने आस-पास के माहौल का मुआयना करता होगा, तो उन्हें अपना वो माहौल-वो दुनिया वैसी ही महसूस होती होगी, जैसा कि उनके जीवन को सहारा देने के लिए जरूरी होगा।
ऊपर लिखी आखिरी लाइन को एक वैज्ञानिक नियम में भी तब्दील किया जा सकता है। हमारे वजूद की सच्चाई, उस माहौल-उस वातावरण की शर्तों से तय होती है, जिनके बीच हम खुद को मौजूद पाते हैं। उदाहरण के लिए, अगर हम ये नहीं जानते कि पृथ्वी से सूरज कितनी दूर है, तो हम मन मुताबिक अंदाजों पर यकीन करते रहेंगे कि पृथ्वी से सूरज की दूरी कितनी कम या कितनी ज्यादा है। हमें जीने के लिए तरल अवस्था में पानी की जरूरत है, और अगर पृथ्वी सूरज के करीब होती तो हमारे ग्रह का सारा पानी खौल-खौल कर भाप बनकर उड़ गया होता और अगर पृथ्वी सूरज से दूर होती तो ये सारा पानी जमकर पत्थर जैसा बन चुका होता। ये एक वैज्ञानिक सिद्धांत है, जिसे 'वीक एंथ्रॉपिक प्रिंसिपल' कहते हैं। 'वीक एंथ्रॉपिक प्रिंसिपल' कोई बहुत ज्यादा विवादास्पद नहीं है, लेकिन इसका एक प्रभावशाली स्वरूप भी है, जिसे भौतिकशास्त्री हिकारत की नजर से देखते हैं। ' द स्ट्रांग एंथ्रॉपिक प्रिंसिपल' कहता है कि हमारे वजूद की सच्चाई केवल हमारे वातावरण पर ही अवरोध नहीं डालती, बल्कि ये प्राकृतिक नियमों के सभी मुमकिन प्रकारों और खुद कुदरत को भी बंदिशों में बांध देती है।
ये सिद्धांत केवल हमारे सौरमंडल की उन विशेषताओं से ही सामने नहीं आया है, जो कई विपरीत स्थितियों के बावजूद मानव जीवन के विकास को सहारा देती नजर आती हैं। बल्कि ये सिद्धांत संपूर्ण ब्रह्मांड के गुण-धर्म और इसके नियमों से भी संबद्ध है। लगता है ब्रह्मांड की ये ‘डिजाइन’ हम मानवों को सहारा देने के लिए ही खासतौर पर काट-छांट कर तैयार की गई है और अगर हमें अपने अस्तित्व की रक्षा करनी है, तो हमें एक छोटे से कमरे जैसी इस पृथ्वी को नए बदलावों के लिए छोड़ना होगा। इसे विस्तार से बताना कहीं ज्यादा मुश्किल है।
हमारे ब्रह्मांड का शुरुआती रूप हाइड्रोजन, हीलियम और थोड़े से लीथियम के खौलते उमड़ते-घुमड़ते बेहद घने बादल जैसा था, फिर ब्रह्मांड आज के स्वरूप में कैसे ढल गया, जहां कम से कम एक ऐसी दुनिया मौजूद है जहां बुद्धिमान सभ्यता मौजूद है, ये कहानी बेहद दिलचस्प है और कई चैप्टर्स में बंटी है। प्रकृति की शक्तियां कुछ इस तरह काम कर रही थीं कि नवजात सृष्टि के उन उमड़ते-घुमड़ते आदि तत्वों से खासतौर पर कार्बन जैसे भारी तत्व बन सकें और ये भारी तत्व इस काबिल भी हों कि आने वाले अरबों साल तक स्थिर अवस्था में बने रह सकें। ये भारी तत्व उन भट्ठियों में बनते हैं, जिन्हें हम सितारों के नाम से जानते हैं। इसलिए प्राकृतिक शक्तियां सबसे पहले आकाशगंगाओं और सितारों के जन्म लेने की स्थितियां तैयार करती हैं। जिनके बीज ब्रह्मांड के आदिस्वरूप की छोटी-छोटी असमरूपताएं तैयार करती हैं।
केवल इतना ही पर्याप्त नहीं, सितारों के भीतर की जबरदस्त हलचल कुछ ऐसी थी कि इस प्रक्रिया में कई सितारे जबरदस्त विस्फोट के साथ बिखर गए। इस तरह धमाके के साथ नष्ट होते सितारों ने भारी तत्वों को अंतरिक्ष में दूर-दूर तक बिखेर देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्राकृतिक नियमों ने उस मृत सितारे के अवशेषों को फिर से समेटना, आसपास लाना और एक बार फिर से संघनित करना शुरू कर दिया। इसी के साथ, सितारों की नई पीढ़ी अस्तित्व में आ गई। ये नए सितारे उन नवजात ग्रहों से घिरे हुए थे जिनका निर्माण ताजा-ताजा बने भारी तत्वों से हुआ था।
मॉडल यूनिवर्स के परीक्षण से हम ये समझ सकते हैं कि फिजिक्स के सिद्धांतों में कुछ खास बदलाव कैसे आते हैं। फिजिक्स के नियमों में सैद्धांतिक तौर पर आए बदलावों के असर का अध्ययन कोई भी कर सकता है। इस तरह की गणनाएं दिखाती हैं कि बेहद मजबूत न्यूक्लियर फोर्स में 0.5 प्रतिशत जितनी या फिर इलेक्ट्रिकल फोर्स में 4 प्रतिशत जितनी कमी सभी सितारों में मौजूद सारे कार्बन या फिर समूची ऑक्सीजन को ही नष्ट कर देगी। इसके साथ ही जीवन की वो सारी संभावनाएं भी खत्म हो जाएंगी जो इन तत्वों से जुड़ी हैं। साथ ही हमारे सिद्धांतों के ज्यादातर आधारभूत स्थिरांक यानि कॉन्सटेंट्स, जो कि बिल्कुल अचूक होते हैं, अगर उनमें हल्का सा भी बदलाव हो जाए तो इस ब्रह्मांड की शक्ल ही बदल जाएगी, जो कि कई मामलों में जीवन के विकास के बिल्कुल प्रतिकूल होगा। उदाहरण के तौर पर अगर प्रोटान 0.2 प्रतिशत और वजनी हो जाएं तो वो न्यूट्रॉन्स में बदल जाएंगे, जिससे पूरा अणु ही अस्थिर हो उठेगा।
अगर हम ये मानें कि ग्रहीय जीवन के विकास के लिए किसी सितारे के स्थिर परिक्रमा पथ पर कुछ हजार लाख साल तक बने रहना ही जरूरी है तो इससे स्पेस डाइमेंशन्स की संख्याएं भी तय हो जाती हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण के नियमों के मुताबिक हमारी पृथ्वी के जैसा दीर्घवृत्ताकार परिक्रमापथ केवल थ्री-डायमेंशन्स में ही संभव हो सकता है। इन तीनों डायमेंशन्स में से किसी भी एक ओर से कोई छोटे से छोटा डिस्टरबेंस, जैसे किसी पड़ोसी ग्रह का शक्तिशाली खिंचाव, अगर सामने आ जाए तो परिक्रमा पथ पर अपने सितारे का चक्कर लगा रहा ग्रह रास्ते से दूर छिटक जाएगा और अपनी धुरी पर घूर्णन करते हुए अपने सितारे से दूर, बहुत दूर निकल जाएगा।
हमारी पृथ्वी जैसा कोई कॉम्पलेक्स स्ट्रक्टचर, जो हम मानवों के जैसे बुद्धिमान जीवन की सार-संभाल करने में सक्षम हो, बेहद भंगुर लगता है। किसी सिस्टम के लिए प्रकृति के नियम बेहद अचूक होते हैं। अब इन संयोगों से हम क्या अर्थ निकालें ? सूक्ष्मतम रूप में सौभाग्य और अपने आस-पास की चीजों में हम जिस सौभाग्य की तलाश करते हैं भौतिकी के आधारभूत नियमों की प्रकृति उससे अलग किस्म का सौभाग्य होता है। ये सहज सवाल खड़े करता है, कि ये चीज ऐसी क्यों है?
बहुत से लोग ‘भगवान के काम’ के सबूत के तौर पर इन संयोगों का इस्तेमाल करना पसंद करेंगे। हजारों साल पुराने पौराणिक और आध्यात्मिक आख्यानों में ऐसे विचार भरे पड़े हैं कि इस ब्रह्मांड को इस तरह से डिजाइन किया गया है, ताकि ये मानव जाति को सहारा दे सके। पश्चिमी संस्कृति में ओल्ड टेस्टामेंट में संपूर्ण सृष्टि को ईश्वरीय रचना बताया गया है, लेकिन परंपरागत ईसाई दृष्टिकोण अरस्तु से भी बहुत ज्यादा प्रभावित है, जो मानते थे कि हमारी बौद्धिक प्राकृतिक दुनिया ईश्वरीय निर्देशानुसार ही संचालित हो रही है।
ये जवाब मॉडर्न साइंस के नहीं है। कॉस्मोलॉजी की ताजा खोजों से पता चलता है कि ये ब्रह्मांड शून्य से खुद-ब-खुद उत्पन्न हुआ है, गुरुत्वाकर्षण के नियम और क्वांटम थ्योरी से इसकी पुष्टि भी होती है। अपनेआप की ये उत्पत्ति, जिसे स्वयंभू उत्पत्ति भी कह सकते हैं, ही वो सबसे बड़ा कारण है जो इशारा करता है कि शून्य के बजाय वहां उत्पत्ति से पहले जरूर कुछ मौजूद रहा होगा। आखिर इस ब्रह्मांड का अस्तित्व क्यों है? आखिर हमारे वजूद की वजह क्या है? अब इसके लिए भगवान से विनती करने की जरूरत नहीं है कि वो अंधकार को रौशन करें और सृष्टि को गतिमान हो जाने का आदेश दें।
हमारा ब्रह्मांड, ऐसे ही दूसरे बहुत सारे ब्रह्मांडों में से एक है और इनमें से हरेक के लिए नियम अलग-अलग हैं। अनेक ब्रह्मांडों यानि ‘मल्टीवर्स’ का ये विचार कोई ऐसी धारणा नहीं है जिसे अचूकता के चमत्कार को समझाने के लिए गढ़ लिया गया हो। बल्कि ये ऐसी तस्वीर है, जिसकी तरफ मॉडर्न कॉस्मोलॉजी के बहुत सारे सिद्धांत इशारा कर रहे हैं। अगर ये हकीकत है, तो ये मजबूत धार्मिक सिद्धांतों को कमजोर कर देगी और पर्यावरण संबंधी कारकों की तरह फिजिकल नियम को भी अचूक बना देगी। इसका सीधा अर्थ ये है कि हमारा कॉस्मिक हैबिटेट – जो कि अब जहां तक हम इसे देख सकते हैं, ये संपूर्ण ब्रह्मांड , ऐसे ही बहुत सारे ब्रह्मांडों में से ही एक है।
हरेक ब्रह्मांड के कई इतिहास और बहुत सारी मुमकिन स्थितियां हो सकती हैं। लेकिन उनमें से बहुत कम ब्रह्मांड ऐसे होंगे जहां हमारे जैसे प्राणियों का अस्तित्व संभव होगा। अगर ब्रह्मांड की विशालता के स्तर पर विचार करें तो हम बेहद तुच्छ और महत्वहीन से नजर आते हैं, लेकिन फिरभी इसने एक मायने में हम मानवों को सृजन का स्वामी बना दिया है।

- प्रो. स्टीफन हॉकिंग की नई किताब ‘द ग्रांड डिजाइन’ के चुनिंदा अंश। ‘द ग्रांड डिजाइन’ को कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के एस्ट्रोफिजिसिस्ट प्रो. स्टीफन हॉकिंग और कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट आप टेक्नोलॉजी के फिजिसिस्ट लियोनार्ड म्लोदिनोव ने मिलकर लिखा है।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बहुत आभार!
    इस ताजा पुस्तक के अंशों को हि्न्दी में सब से पहले लाने के लिए।

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  2. ये अच्छी बात है की विज्ञान की ताजा बातें हिंदी मैं आसान भाषा मैं आप लोगों के लिए लिख रहे हैं, बधाई! हाकिंग ने कोई नई बात नहीं कही है, 'न कोई चोरी की है, डाका भी नहीं डाला' फिर इतना हंगामा क्यों बरपा है! विज्ञान मैं ये बात नयी नहीं है आज दुनियां भर के लगभग ८०% वैज्ञानिक या तो नास्तिक हैं या शंकावादी हैं. खैर ये बहस तो अभी चलनी है. इतना तय है की आज दुनियां की किसी भी गंभीर समस्या का हल किसी भी संगठित धर्म के पास नहीं है, और बेहतर होगा की अब उसके भरोसे न रह कर अपनी धरती अपने देश अपने घर और अपना खुद का 'चार्ज' सम्भाल लिया जाये.
    अमिताभ

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  3. धन्यवाद , हिंदी में होने से ये जानकारी बहुत उपयोगी हो गई हैं !

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