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रविवार, 25 अप्रैल 2010

एलियंस के संपर्क से बचना जरूरी – स्टीफन हॉकिंग

सर्च फॉर एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल इंस्टीट्यूट यानि सेटी अभियान की 50 वीं सालगिरह के मौके पर महान एस्ट्रोफिजिसिस्ट स्टीफन हॉकिंग ने जोर देते हुए कहा है कि इस ब्रह्मांड में हम अकेले नहीं हैं। धरती से दूर हजारों ग्रहों या चंद्रमाओं पर हमसे भी ज्यादा विकसित सभ्यताएं मौजूद हो सकती हैं। लेकिन हमें उनके संपर्क में आने से बचना चाहिए। किसी बुद्धिमान सभ्यता का वजूद पृथ्वी के अलावा कहीं और भी पूरी तरह मुमकिन है और ये भी संभव है कि वो अंतरिक्ष में दूर-दराज के सफर भी कर रहे हों।
ब्रह्मांड में करीब 100 करोड़ आकाशगंगाएं हैं और हर आकाशगंगा में लाखों तारे। ज्यादातर तारों का अपना सौरमंडल भी हैं ऐसे में इतने बड़े ब्रह्मांड में ये बात बड़ी अजीब सी लगती है कि जीवन और बुद्धिमान सभ्यता का वजूद केवल धरती पर ही है। हॉकिंग ने कहा कि मेरा गणितज्ञ दिमाग यही मानता है कि एलियंस हैं। इस बारे में असल चुनौती ये सोचने की है कि आखिर वो किस तरह के हो सकते हैं। बहुत संभव है कि वो आम जानवर और बैक्टीरिया जैसे माइक्रोब्स जैसे हों। इसमें बैक्टीरिया जैसे जीव ज्यादा महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये वो जीव हैं जिन्होंने धरती पर इंसानों के आने से पहले सबसे ज्यादा वक्त तक राज किया और अब भी धरती में हर जगह मौजूद हैं। हॉकिंग एक गंभीर खतरे की तरफ भी आगाह करते हैं। वो कहते हैं कि इन दूर ग्रहवासियों से अगर धरती के लोगों का संपर्क हुआ तो ये बेहद खतरनाक होगा। वे संसाधनों को हासिल करने के लिए धरती पर हमला कर सकते हैं। संभव है कि अनजान बौद्धिक सभ्यताएं हमसे बहुत ज्यादा विकसित हों। हम तो धरती के संसाधनों को अब खत्म कर रहे हैं, लेकिन हो सकता है कि ये एलियन सभ्यताएं अपने ग्रहों के प्राकृतिक संसाधनों को बहुत पहले ही खत्म कर चुकी हों। ऐसे में उन्हें ऐसे नए ग्रहों की तलाश होगी जो संसाधनों से भरपूर हों और इसी कवायद में वे जिस ग्रह तक पहुंच सकते हों वहां पहुंचने की कोशिश कर रहे हों। अगर ऐसा है तो एलियन सभ्यताएं ऐसे ग्रहों पर कब्जा जमाने में नहीं हिचकेंगी, मुझे तो लगता है कि ये सोचने का पर्याप्त कारण है कि वे धरती पर भी हमला कर सकते हैं।
महान वैज्ञानिक स्टीफ हॉकिंग ने एलियंस यानि किसी परग्रहीय बुद्धिमान सभ्यता के वजूद पर अपने विचार पहली बार जाहिर नहीं किए हैं। इससे पहले, नासा की 50वीं वर्षगांठ के मौके पर जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में आयोजित विशेष लेक्चर में ऐस्ट्रोफिजिक्स के विद्वान हॉकिंग ने, क्या जीवन सिर्फ पृथ्वी पर ही मौजूद है? इस सवाल का जवाब देते हुए कथा था, “ शायद नहीं। इस बारे में तीन तरह के विकल्प हो सकते हैं। पहला ये कि पृथ्वी के सिवा जीवन कहीं और नहीं है। दूसरा ब्रह्मांड में हमसे ज्यादा बुद्धिमान प्राणी मौजूद हैं, और तीसरा ये, कि दूसरे ग्रहों पर मौजूद प्राणी हमारे जितने विकसित नहीं हैं।”
उस वक्त हॉकिंग ने इनमें से तीसरे विकल्प को सच के ज्यादा करीब माना था, यानि जीवन धरती के अलावा दूसरी भी तमाम जगहों पर है, लेकिन वो हमारी तरह विकसित नहीं हैं। हॉकिंग ने कहा था, “ अगर हमसे ज्यादा बुद्धिमान सभ्यताएं मौजूद होतीं, तो वो स्पेस में रेडियो सिग्नल भेजने में काफी सक्षम होते। वे परमाणु बम जैसे घातक हथियार भी बना सकते थे। लेकिन अब तक ऐसा कोई संकेत नहीं मिल सका है। जीवन की शुरुआती अवस्था काफी सामान्य बात हो सकती है, लेकिन विकसित और बुद्धिमान जीवों की मौजूदगी दुर्लभ है। ऐसे में कोई ये सवाल भी उठा सकता है कि एलियंस के मुकाबले पृथ्वी का ही जीवन कहीं कम विकसित तो नहीं। तो क्या लोगों को दूसरे ग्रहों के प्राणियों को लेकर चिंतित होना चाहिए? एलियंस के संपर्क में आने के दावे कुछ खास लोगों ने ही किए हैं। हॉकिंग ने कहा, दूसरे ग्रहों के प्राणियों में इंसानों के जैसा डीएनए नहीं होगा। ऐसे में अगर कोई मानव एलियन के संपर्क में आता है, तो उसे ऐसी बीमारी का इन्फेक्शन हो सकता था, जिसकी प्रतिरोध क्षमता हममें नहीं है। अगर मानव जाति को और लाखों साल तक अपना वजूद बनाए रखना है, तो उसे ऐसी जगहों पर जाना ही होगा जहां कोई नहीं गया। स्पेस रिसर्च पर खर्च का विरोध करने वाले लोगों की तुलना मैं उन लोगों से करता हूं जिन्होंने 1492 में क्रिस्टोफर कोलंबस की खोजी यात्रा का विरोध किया था।”

नर्मदा की सैर को आते थे एलियन !


नर्मदाघाटी के प्रागैतिहासिक शैलचित्रों के शोध में जुटी एक संस्था ने रायसेन से करीब 70 किलोमीटर दूर घने जंगलों के शैलाश्रयों में मिले प्राचीन शैलचित्रों के आधार पर अनुमान जताया है कि प्रदेश के इस हिस्से में दूसरे ग्रहों के प्राणी "एलियन" आए होंगे। संस्था का मानना है कि आदि मानव ने इन शैलचित्रों में उड़नतश्तरी की तस्वीर भी उकेरी है। पत्थर पर दर्ज आकृति नर्मदा घाटी में नए प्रागैतिहासिक स्थलों की खोज में जुटी सिड्रा आर्कियोलाजिकल एन्वॉयरन्मेंट रिसर्च, ट्राइब वेलफेयर सोसाइटी के पुरातत्वविद् मोहम्मद वसीम खान के अनुसार ये शैलचित्र रायसेन जिले के भरतीपुर, घना के आदिवासी गांव के आसपास की पहाडियों में मिले हैं। इनमें से एक शैलचित्र में उड़नतश्तरी (यूएफओ) का चित्र देखा जा सकता है। इसके पास ही एक आकृति दिखाई देती है, जिसका सिर एलियन जैसा है। यह आकृति खड़ी है। जैसा देखा, वैसा बनाया संस्था के अनुसार प्रागैतिहासिक मानव अपने आस-पास नजर आने वाली चीजों को ही पहाड़ों की गुफाओं, कंदराओं में पत्थरों पर उकेरते थे। ऎसे में सम्भव है कि उन्होंने एलियन और उड़नतश्तरी को देखा हो। देखने के बाद ही उन्होंने इनके चित्र बनाए होंगे। रायसेन के पास मिले शैलचित्र आदिमानव के तत्कालीन जीवन शैली से भी मेल नहीं खाते। खान के अनुसार कुछ इसी तरह के चित्र भीम बैठका और रायसेन के फुलतरी गांव की घाटी में भी मिले हैं। सबसे बड़ा रहस्य दूसरे ग्रहों पर भी जीव होने के अनुमान के आधार पर दुनियाभर में एलियन के अस्तित्व पर शोध हो रहे हैं। विभिन्न देशों में कई बार दूसरे ग्रहों से आने वाली उड़नतश्तरी (अनआइडेंटिफाइड फ्लाइंग ऑब्जेक्ट) देखे जाने के दावे किए जाते रहे हैं। इसके अलावा, कई बार एलियन को भी देखे जाने के दावे किए जाते रहे हैं। हालांकि, वैज्ञानिक तौर पर अब तक एलियन या उड़नतश्तरी का अस्तित्व साबित नहीं हो पाया है। और शोध की जरूरत इन शैलचित्रों ने शोध की नई और व्यापक सम्भावनाओं को जन्म दिया है। इनका मिलान विश्व के अनेक स्थानों पर मिले शैलचित्रों से भी किया जाएगा। खान का अनुमान है कि दूसरे ग्रहों के प्राणियों का नर्मदाघाटी के प्रागैतिहासिक मानव से कुछ न कुछ संबंध जरूर रहा है। यह संबंध किस प्रकार का था इस पर शोध जारी है। पुरासम्पदा का खजाना कुछ दशक पूर्व जियोलॉजिस्ट डॉ. अरूण सोनकिया ने नर्मदाघाटी के हथनौरा गांव से अति प्राचीन मानव कपाल खोजा था। उसकी कार्बन आयु वैज्ञानिकों ने साढ़े तीन लाख वर्ष बताई है। नर्मदाघाटी का क्षेत्र कई पुरासम्पदाओं का खजाना माना जाता है।

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

क्रायोजनिक टेक्नोलॉजी वाला छठा देश – भारत

नेट पर मैं कुछ रिपोर्ट्स देख रहा था, जीएसएलवी-डी3 का भारतीय अभियान धराशाई, अंतरिक्ष में बादशाहत की भारतीय उम्मीदों को झटका, स्वेदशी क्रायोजनिक इंजन की हवा निकली और भी न जाने क्या-क्या, बातें हैं, बातों का क्या।
मैं केवल इतना कहना चाहूंगा, कि न तो स्वदेशी क्रायोजनिक इंजन की हवा निकली है और न ही जीएसएलवी-डी3 का भारतीय अभियान ही धराशाई हुआ है। क्रायोजनिक इंजन और इसकी टेक्नोलॉजी पर टिप्पणी नहीं की जा सकती, वो फेल नहीं माना जा सकता, क्योंकि बृहस्पतिवार की लांचिंग के दौरान क्रायोजनिक इंजन तो चालू ही नहीं हो सका और रहा सवाल जीएसएलवी-डी3 के भारतीय अभियान का तो हम बहुत जल्दी दुनिया को इस नाकामी की धूल झाड़कर दिखा देंगे। इसरो प्रमुख राधाकृष्णन ने 2010 बीतने से पहले ही देश से क्रायोजनिक इंजन वाले एक और अभियान की कामयाब लांचिंग की वादा कर लिया है, और हम इसे पूरा करके दिखा देंगे।
मैं बृहस्पतिवार की जीएसएलवी-डी3 लांचिंग के विवरणों पर नहीं जाऊंगा, क्योंकि अब ये बात सबको मालूम है। लांचिंग के 505 सेकेंड बाद जीएसएलवी-डी3 में तीसरे स्टेज पर लगा क्रायोजनिक इंजन बर्न ही नहीं हो पाया। इसके साथ लगे दो छोटे बर्नियर इंजन ऑन ही नहीं हो पाए। इन दो छोटे बर्नियर इंजन्स को ही ऑन होकर तीसरे स्टेज पर लगे क्रायोजनिक इंजन को बर्न करना था। धरती से 60 किलोमीटर से कुछ ऊंचाई पर जाने के बाद ही बर्न प्रक्रिया बंद हो गई और जीएसएलवी-डी3 दीपावली के किसी दग चुके रॉकेट की तरह नीचे गिरकर समंदर में समा गया।
मैं इस असफलता को कम करके नहीं आंक रहा, 330 करोड़ रुपये के मिशन पर पानी फिरना देश के लिए कोई आसान बात नहीं, लेकिन खास बात ये कि हमने गुणवत्ता से समझौता किए बगैर इस मिशन की लागत पर शुरुआत से ही अंकुश रखा। यही वजह है कि जीएसएलवी-डी3 की लांचिंग का फेल होना एक खेद की बात तो है, लेकिन निराशाजनक नहीं। इस मिशन से जुड़े वैज्ञानिकों के लिए ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी पक्षी की देखभाल के बीच उसका बच्चा अपनी पहली उड़ान भरता है। हां, पहली उड़ान नाकाम रही इसका अर्थ केवल यही है कि अब हम पहले से ज्यादा अनुभवी हो गए।
श्रीहरिकोटा के सतीश धवन स्पेसपोर्ट पर 15 अप्रैल की सुबह जब जीएसएलवी-डी3 लांच की तैयारियां जारी थीं, तभी मेरे एक इंजीनियर साथी ने मजाक किया, जीएसएलवी एक बार फिर लांच पैड पर है। इसपर किसी वैज्ञानिक ने कहा कि क्या हुआ, तो उस इंजीनियर ने फिर मजाक किया, इसबार जीएसएलवी के साथ इनसेट 4 सी नहीं जीसैट-4 है। इस पर एक गहरी खामोशी छा गई, क्योंकि वो इंजीनियर मजाक में ही सही लेकिन जुलाई 2006 में हुए इनसेट-4 सी हादसे की ओर इशारा कर रहा था, उस वक्त लांच वेहेकिल जीएसएलवी-एफ02 था। शाम होते-होते ये मजाक एक दुखद हकीकत में बदल गया।
स्वदेशी क्रायोजनिक इंजन हमने किस तरह बनाया इसकी कहानी बताते हुए मिशन डायरेक्टर जी. रवींद्रनाथ के चेहरे पर मुस्कुराहट भले ही कम हुई है, लेकिन उनकी आंखों की चमक बरकरार है। 19 साल तक हम उस टेक्नोलॉजी को विकसित करने में जुटे रहे जो दुनिया की सबसे गोपनीय और सबसे संवेदनशील टेक्नोलॉजी में से है। टनों वजनी संचार सेटेलाइट्स को 38 से 40 हजार किलोमीटर तक की ऊंची कक्षाओं यानि जियोसिंक्रोनस ट्रांसफर ऑरबिट में स्थापित करने के लिए हमें ऐसा लांच वेहेकिल चाहिए था जिसके तीसरे स्टेज में क्रायोजनिक इंजन फिट हो। क्रायोजनिक इंजन का अपना सामरिक महत्व भी है, इसलिए इसकी टेक्नोलॉजी कड़ी निगरानी में रहती है, और इसीलिए किसी ने हमसे सहयोग नहीं किया। तब हमने 1991 में अपना क्रायोजनिक इंजन बनाने का काम शुरू किया। ये वो वक्त था जब अमेरिका ने रूस पर दबाव डालकर उसे अपना क्रायोजनिक इंजन हमें देने से रोक दिया था।
क्रायोजनिक टेक्नोलॉजी में शून्य से 183 डिग्री सेंटीग्रेड नीचे के तापमान पर तरल ऑक्सीजन और शून्य से 253 डिग्री सेंटीग्रेड नीचे के तापमान पर तरल हाइड्रोजन का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन खास बात ये कि इतने कम तापमानपर धातुएं भंगुर हो जाती हैं, इसरो में वैज्ञानिकों ने एक खास मिश्रधातु बनाई जो इतने कम तापमान को आसानी से झेल सकती थी। इतना ही नहीं हमने अपनी प्रयोगशालाओं में इस मिश्रधातु से बनने वाले क्रायोजनिक इंजन के लिए खास वेल्डिंग टेक्नोलॉजी और एक नए लुब्रीकेंट्स की भी इजाद की। इसलिए जब 19 साल की मेहनत के बाद हमने प्रयोगशाला में इसका सफल परीक्षण कर लिया तो दुनियाभर की आंखें फटी रह गईं। जीएसएलवी-डी3 का परीक्षण दुनिया के लिए कितना महत्वपूर्ण था, इस लांच को लेकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया की गहमा-गहमी से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
भले ही जीएसएलवी-डी3 की उड़ान पूरी नहीं हुई, लेकिन क्रायोजनिक इंजन की टेक्नोलॉजी हमारे हाथ में है और अमेरिका, रूस, यूरोप, जापान और चीन के बाद हम इस टेक्नोलॉजी वाले छठे देश बन चुके हैं।

डॉ. बी.आर.गुरुप्रसाद
वैज्ञानिक, इसरो